Thursday, April 1, 2010

a puzzle yet unsolved

नामुमकिन थी हकीकत, तो ज़िन्दगी ख्वाब बना ली
छोटे से उस जहान में भी क्यों मजबूर हो गए
बिछड़ कर भी तय किये मीलों फासले पास आने
करीब आ कर क्यों दो किनारों जितना हम दूर हो गए
दूजे के भरोसे पे जीत ली थी दुनिया सारी
आपस में क्यों ये हौसले चूर हो गए
अपनों की परायी भीड़ में, एक अज़नबी नहीं पराया था
क्यों अपना बन कर , एक दूसरे को नामंजूर हो गए

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